आत्मविकास

हम स्वयं के विकास को चार भागों में विभाजित कर सकते हैं-
शारीरिक विकास
मानसिक विकास
आध्यात्मिक विकास
आर्थिक विकास

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      और इन सबका मिला-जुला रूप आत्मविकास कहलाता है। हमारे सुखी जीवन के लिए आत्मविश्वास के सभी तत्वों का स्वतंत्र एवं पूर्ण रूप से विकसित होना आवश्यक है। इनमें से किसी एक कि भी कमी जीवन में कुरूपता उत्पन्न कर देती है।

शारीरिक विकास-

हमारे जन्म के बाद से या कहें कि मां के गर्भ में ही हमारे शारीरिक विकास की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। आध्यात्मिक, मानसिक और आर्थिक विकास तभी सम्भव है जब हमारा शारीरिक विकास उच्च स्तर का हो। अगर हम शारीरिक रूप से स्वस्थ्य नहीं है तो कितनी भी धन-सम्पत्ति और वैभव अर्जित कर लें, किसी का भी कोई मोल नहीं है।

मानसिक विकास-

मानसिक विकास के बिना आध्यात्मिक और आर्थिक विकास सम्भव नहीं है। एक बच्चे का मानसिक विकास वैसे तो मां के गर्भ से ही प्रारम्भ हो जाता है लेकिन शुरुआती जीवन में घर-परिवार का माहौल और फिर उसके दोस्तों की संगत ही यह तय करती है कि वह किस मानसिक स्तर का है। हम अपने से तो अपने घर परिवार का चुनाव नहीं कर सकते लेकिन हम अपने दोस्तों के चयन में पूर्णतया स्वतन्त्र है। इसीलिए कहते हैं जीवन में सबसे अधिक सावधानी अपने दोस्तों के चुनाव में ही बरतनी चाहिए।

आध्यात्मिक विकास-

आध्यात्मिक विकास हमारे मन एवं शरीर को स्वस्थ्य तथा शांत रहने एवं जीवन को सुंदर बनाने की दिशा प्रदान करता है। गांधी जी के मतानुसार, "5 वर्ष के बच्चे को सामान्य अक्षरज्ञान के पश्चात आध्यात्मिक रूप से शिक्षित करना प्रारम्भ कर देना चाहिए।"

आर्थिक विकास-

उपभोक्तावाद के आज के इस दौर में आर्थिक रूप से सपंन्न होना अत्यंत आवश्यक है। अगर आप धन-धान्य से भरपूर हैं, तो फिर आज के समाज में मानसिक एवं आध्यात्मिक रूप से अक्षम होते हुए भी मान एवं प्रतिष्ठा अर्जित कर सकते हैं। वहीं अगर आप आध्यात्मिक रूप से बहुत सम्पन्न हैं परंतु आर्थिक रूप से पिछड़े हैं तो आप समाज में हेय दृष्टि से देखे जाएंगे।

हालांकि अत्यधिक धन संपदा और मान-सम्मान के बावजूद अगर आप शारीरिक एवं मानसिक रूप से कमजोर हैं तो आप एक सुखी एवं शांतिपूर्वक जीवन नहीं जी सकते।खुशहाल जीवन व्यतीत करने के लिए आवश्यक है कि हम आत्मविकास के सभी तत्वों का पूर्ण रूप से विकास करें।


राजीव