इस पोस्ट को लिखने से पहले मैं दो बातें बताना चाहता हूँ जिसे मैंने खुद देखा और महसूस किया है।
पहली यह कि लॉक डाउन से ठीक पहले मैंने अपने विद्यालय में सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता का आयोजन किया था। इस सिलसिले में 10 दिनों के भीतर मैं 50 से ज्यादा स्कूलों में गया और लगभग 5000 बच्चों से बात की। इनमें से आधे से ज्यादा विद्यालय प्राइमरी और सहायता प्राप्त अनुदानित थे। इनसे मिलने और इनकी प्रतिक्रिया जानने के बाद मन बहुत खिन्न हुआ और ये समझ आया कि क्यों लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते। प्राथमिक विद्यालय के कुछ शिक्षक तो बजाय इसके कि वो बच्चों को प्रोत्साहित करें वो उनको निरुत्साहित कर रहे थे। फिर भी कुछ जिज्ञासु और उत्साही बच्चे वहाँ से आये, परीक्षा में भाग लिया और प्रदर्शन भी बढ़िया किया। परंतु उन शिक्षकों का रवैया नहीं बदला, बच्चों का हौसला बढ़ाने के बजाय वे ये कह रहे थे कि मुझे तो पहले से ही पता था तुम कुछ नहीं कर पाओगे (बाद में मुझे समझ आया कि वो गलत नहीं बिल्कुल सही कह रहे क्योंकि जिस हिसाब से वो पढ़ाते हैं उसमें तो वे कुछ नहीं ही कर सकते)।
दूसरी बात लॉक डाउन के ठीक बाद की है, जब 21 दिनों की पहली बंदी हुई तो इसमें एक काम यह हुआ कि कई वर्षों से बिसराये हुए रिश्तेदारों से बात हुई इस दरम्यान दो ऐसे लोगों से भी बात हुई जो शिक्षक बनना चाहते हैं। एक तो काफी करीबी हैं उनसे गाहे बगाहे बातचीत होती रहती है, वो पिछले 5 सालों से इस इंतजार में हैं कि कब उनको सरकारी शिक्षक की नौकरी मिले और उनके जीवन में निकम्मेपन की बहार आये क्योंकि उनका मानना है कि प्राइमरी स्कूल में शिक्षक होने के बाद दिन भर बैठकर गप्प मारने के अलावा कोई और काम जीवन में शेष नहीं रह जाता। इन 5 सालों में उनका एक बेटा भी बड़ा होकर स्कूल जाने लायक हो गया है तो उनकी एक और दिली इच्छा है कि सरकारी नौकरी मिलते ही वे अपने बेटे का दाखिला शहर के सबसे महंगे प्राइवेट स्कूल में कराएं। हालांकि अभी तक उनकी ये इच्छा पूरी नहीं हुई क्योंकि हर बार भर्ती परीक्षा में कट ऑफ के करीब आकर उनका चयन रुक जाता है और इसी के साथ अधूरी रह जाती है सबसे महंगे प्राइवेट स्कूल में बेटे को पढ़ाने की उनकी ख़्वाहिश।
जो दूसरे भाई साहब हैं उनकी कहानी भी इससे कुछ ज्यादा अलग नहीं है । अभी पिछली 69 हजार की शिक्षक भर्ती में उनका चयन भी हो गया है और इसके साथ साथ राज्य सरकार की किसी तीसरी या चौथी ग्रेड की कर्मचारी पोस्ट में भी उनका चयन हुआ है । अब उनको दो में से किसी एक का चुनाव करना है लेकिन इनकी समस्या ये है कि अगर ये शिक्षक की नौकरी चुनते हैं तो उसमें आराम तो खूब है लेकिन डेस्क के नीचे की कमाई नहीं है। वहीं वो दूसरे में जाते हैं तो वहाँ पर उनकी तनख्वाह से भी ज्यादा ऊपरी कमाई है लेकिन वहां आराम बिल्कुल भी नहीं है। अभी वो इसी दुविधा में थे कि किसका चयन करें तभी उनकी दोनों नौकरियों पर ग्रहण लग गया।
इन दोनों से बात करते समय जितना मुझे इनके नौकरी न मिलने के कारण अपार दुःख का अनुभव हो रहा था उससे कहीं ज्यादा अंदर से खुशी महसूस हो रही थी। क्योंकि मेरा मानना है कि ऐसे लोग बेरोजगार रहेंगे तो सिर्फ अपने घर पर बोझ रहेंगे लेकिन अगर ये नौकरी पा गए तो अपने समाज और देश पर बोझ बनेंगे।
अब बात करते हैं उसकी जिसके बारे में ये लेख है-
आज मैं जिस शख्सियत के बारे में लिख रहा हूं उनको जानने के पश्चात मेरे इस दृष्टिकोण में बदलाव आया कि सरकारी स्कूलों का कुछ नहीं हो सकता साथ ही इस बात का भरोसा और मजबूत हुआ कि रात चाहे कितनी ही काली क्यों न हो सहर के सूरज की एक रौशनी ही सारे अंधियारे को भगा कर सब कुछ जगमग कर देती है।
मैं बात कर रहा हूं आकांक्षा मधुर की जोकि कुशीनगर के एक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षिका हैं। आकांक्षा मैम जब पहली बार शिक्षिका के तौर पर नियुक्त होकर विद्यालय पहुंची तो इनके पास भी यह रास्ता था और वजह भी कि ये भी बाकियों की तरह बैठकर समय काटें। क्योंकि वहाँ पर बच्चों की संख्या नाममात्र थी और जो थे भी उनके लिए किताब-कॉपी की कोई व्यवस्था न थी।
अंधेरा चाहे जितना गहरा हो अगर आप दिए की छोटी सी लौ लेकर भी पग बढ़ाते हैं तो रास्ता मिलता जाता है।
आकांक्षा मधुर ने भी शिकायत करने या बैठ जाने के बजाय लड़ना चुना और अपने बच्चों के साथ मिलकर किताब लिखने की शुरुआत कर दी । इन्होंने छोटे बच्चों के लिए कई सारी पुस्तकें लिखीं। धीरे धीरे इनके प्रयास से प्रशासन की नजर भी स्कूल पर पड़ी और वहां सभी सुविधाएं उपलब्ध कराई गई। आकांक्षा मधुर के अपने स्कूल एवं बच्चों के प्रति समर्पण की वजह से इन्हें वर्ष का सर्वश्रेष्ठ शिक्षक सम्मान प्राप्त हुआ।
इनका मानना है कि शिक्षक दो प्रकार के होते हैं, एक वे जो मजबूरी वश रोजगार के लिए पढ़ाने का पेशा चुनते हैं और दूसरे वो जो बचपन से ही स्वाभाविक रूप से इनकी तरह शिक्षक होते हैं, जिनका काम ही होता है लोगों को शिक्षित करना और सही मायने में ये दूसरे प्रकार के ही शिक्षक एक आदर्श शिक्षक होते हैं क्योंकि ये सिर्फ पढ़ाते ही नहीं है बल्कि समय समय पर खुद भी पढ़ते और सीखते रहते हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आकांक्षा मैम ने ब्लॉगिंग करना सीखा एवं अपने बच्चों के लिए एक ई-पत्रिका नव-किसलय की स्थापना की। इसके जरिये वे अपने बच्चों द्वारा लिखे गये लेख एवं उनकी चित्रकारी को ब्लॉग के जरिये सभी लोगों तक पहुंचाने का कार्य कर रही हैं।
इस लिंक के माध्यम से आप नव-किसलय पत्रिका पढ़ सकते हैं।
http://psnaumunda.blogspot.com/
एक आदर्श शिक्षक वही होता है जो अपने आचरण से अपने विद्यार्थियों के अंदर सदाचार का बीज बोये एवं समाज में अच्छाई का कारण बनें। आकांक्षा मैम ने इस बात को सत्य सिद्ध किया जब इन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर अपने घर के पास के एक ऐसे व्यक्ति के लिए दुकान खुलवाई, जोकि एक दुर्घटनावश अपने दोनों पैर गवां चुके थे और अपने परिवार का भरण पोषण करने में अक्षम थे।
अभी कुछ दिन पहले इन्होंने एक नए खुले एनजीओ (जो कि बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान करता है) के बच्चों से अपने व्यस्त दिनचर्या में से कीमती समय निकाल कर बात किया एवं बच्चों को बहुत महत्वपूर्ण बातें बताईं।
उस बातचीत का वीडियो आप यहाँ देख सकते हैं
शिक्षक दिवस के अवसर पर ऐसी महान शिक्षिका को नमन 🙏🙏
मेरी शुभकामनाएं हैं कि आप यूँ ही बच्चों के चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए आगे बढ़ती रहें।
राजीव
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